अब जबकि भारत के तालिबान से तार जोडऩे की खबर आई है, तो ये सवाल उठा है कि आखिर पिछले दस महीनों में तालिबान में क्या बदल गया है। हकीकत यह है कि तालिबान जिस कट्टरपंथ के लिए जाना जाता है, उसका मुजाहिरा वह फिर से अफगानिस्तान में कर रहा है।
भारतीय कूटनीति की इसे अजीब कहानी ही समझा जाएगा। पिछले साल अगस्त में जब तालिबान ने काबुल पर कब्जा किया, तो उस पर अपनी असहजता जताने में भारत ने कोई कसर नहीं छोड़ी थी। यहां तक कि खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक ऐसा बयान दिया था, जिसे इस घटनाक्रम की आलोचना के रूप में देखा गया था। तालिबान को जो इतिहास रहा है, उसे देखते हुए भारत की प्रतिक्रिया को अस्वाभाविक नहीं कहा जा सकता। तो इसे उचित ही समझा गया कि कई दूसरे देशों की तरह पिछले अगस्त में भारत ने भी अफगानिस्तान से कूटनीतिक संबंध तोड़ लिए। इसीलिए अब जबकि तालिबान से तार जोडऩे की भारत की कोशिश की खबर आई है, तो इसे समझना मुश्किल हो रहा है। ये सवाल सहज ही उठा है कि आखिर पिछले दस महीनों में तालिबान में क्या बदल गया है। हकीकत तो यह है कि तालिबान जिस कट्टरपंथ के लिए जाना जाता है, उसका मुजाहिरा वह फिर अफगानिस्तान में कर रहा है।
इसके बावजूद भारतीय राजनयिकों ने कतर की राजधानी दोहा में तालिबान प्रतिनिधियों से मुलाकात की है। अगर ये बात सिर्फ अफगानिस्तान की परेशान जनता को मानवीय मदद देने के मुद्दे पर हुई (जैसाकि भारतीय विदेश मंत्रालय ने कहा है), तो फिर इसे भारत के एक सकारात्मक पहल के रूप में देखा जाएगा। लेकिन ये चर्चा तेज है कि जल्द ही भारत काबुल में अपना दूतावास फिर खोल सकता है। ऐसा हुआ, तो इसे पलटी मारना ही समझा जाएगा। पिछले साल अगस्त में भारत ने अफगानिस्तान से अपने अधिकारियों को वापस बुला लिया और दूतावास बंद कर दिया था। पिछले महीने भारत ने कहा कि उसे नहीं पता कि अफगानिस्तान में दूतावास कब खुलेगा। अब देखना है कि क्या ऐसा जल्द ही हो जाता है। फिलहाल, भारतीय विदेश ने बताया है कि