राहुल कांग्रेस की ताकत हैं या कमजोरी?
अजीत द्विवेदी
यह यक्ष प्रश्न है कि राहुल गांधी कांग्रेस की ताकत हैं या उसकी कमजोरी? देश में शायद ही कोई व्यक्ति होगा, जिसकी कोई राय इस सवाल पर नहीं होगी। कह सकते हैं कि देश को राजनीतिक तौर पर विभाजित करने वाला यह सबसे बड़ा सवाल है। यह कैसे हुआ उसकी लंबी कहानी है, जिसका सार यह है कि भाजपा ने अपने प्रचार तंत्र के दम पर यह विमर्श बनवा दिया है कि देश की राजनीति दो ध्रुवीय हो गई है, जिसका एक ध्रुव नरेंद्र मोदी हैं तो दूसरे राहुल गांधी। यहीं वजह है कि देश में जब भी नरेंद्र मोदी के विकल्प की बात होती है तो पहला सवाल यह होता है कि क्या उनकी जगह राहुल को बना दें? देश के मीडिया समूह हर दूसरे-तीसरे दिन जो अर्जी-फर्जी सर्वेक्षण करते हैं उसमें भी मोदी के मुकाबले राहुल का चेहरा रख कर सर्वे का नतीजा बताते हैं। नतीजा सबको पता ही होता है लेकिन उसी में आंकड़े कभी ऊपर-नीचे कर दिए जाते हैं। जैसे ताजा आंकड़ा है कि मोदी 52 फीसदी लोगों की पसंद हैं तो राहुल नौ फीसदी की!
भाजपा के इस प्रचार को अब आम आदमी पार्टी ने भी पकड़ लिया है। आम आदमी पार्टी के पास भी एक प्रतिबद्ध मीडिया है, जो भाजपा बनाम आप के मुकाबले में भले उसका साथ नहीं दे लेकिन जब कांग्रेस की बात आती है तो आगे बढ़ कर आप के एजेंडे का समर्थन करती है। सो, राहुल गांधी के कमजोर होने का जो नैरेटिव पहले भाजपा चलाती थी वह अब आम आदमी पार्टी भी चलाने लगी है। पिछले दिनों अरविंद केजरीवाल ने एक मीडिया समूह की ओर से प्रायोजित ‘टाउन हॉल’ कार्यक्रम में हिस्सा लिया, जिसमें उनसे पूछा गया कि वे कांग्रेस को कमजोर कर रहे हैं तो उनका व्यंग्यात्मक जवाब था ‘मैं क्यों कांग्रेस को कमजोर करूंगा क्या राहुल गांधी कम हैं’? यह वैसी ही बात है, जैसी बात पिछले आठ साल से भाजपा के नेता कह रहे हैं। भाजपा के अनेक नेताओं ने अनेक बार कहा है कि उसके लिए स्टार प्रचारक राहुल गांधी हैं क्योंकि राहुल गांधी जहां भी प्रचार करने जाते हैं वहां कांग्रेस हारती है।
एक तरफ भाजपा और आम आदमी पार्टी का यह प्रचार है कि राहुल गांधी कांग्रेस को कमजोर करने और उसे समाप्त कर देने के लिए पर्याप्त हैं तो दूसरी ओर कांग्रेस पार्टी के नेता उनको फिर से पार्टी का अध्यक्ष बनाने के लिए अड़े हैं। आधा दर्जन प्रदेश कमेटियों ने प्रस्ताव पास किया है कि राहुल गांधी को कांग्रेस का अध्यक्ष बनना चाहिए। सोचें, कितना फर्क है! क्या कांग्रेस पार्टी के नेता उस बात को नहीं समझ रहे हैं, जो भाजपा और आम आदमी पार्टी की ओर से कहा जा रहा है? या वे जानते हुए किसी खास मकसद से राहुल को ही अध्यक्ष बनाने की जिद पकड़े हैं? या वे ईमानदारी से मानते हैं कि भाजपा और आप की ओर से जो कुछ भी कहा जा रहा है वह एक दुष्प्रचार है? तभी इस बात का वस्तुनिष्ठ आकलन करने की जरूरत है कि राहुल कांग्रेस की ताकत हैं या कमजोरी?
पहले इस बात का आकलन करें कि क्या ऐसे कारण हैं, जिनकी वजह से उनको कांग्रेस की कमजोरी कहा जा रहा है या एक कमजोर नेता बताया जा रहा है? इस निष्कर्ष के दो आधार हैं। पहला यह कि पिछले आठ साल में कांग्रेस दो लोकसभा चुनाव हारी है और 49 विधानसभा चुनावों में से 39 में हारी है। दूसरा आधार यह है कि जब से कांग्रेस चुनाव हार रही है तब से एक के बाद एक नेता कांग्रेस छोड़ कर जा रहे हैं। ये दोनों हार्ड फैक्ट हैं इसलिए इन पर सवाल नहीं उठाया जा सकता है।
लेकिन इससे विपक्षी पार्टियां और कांग्रेस छोडऩे वाले नेता दोनों अपनी अपनी सुविधा से निष्कर्ष निकाल रहे हैं। सवाल है यूपीए की दो सरकारों के 10 साल के कार्यकाल के समय सोनिया गांधी कांग्रेस की पूर्णकालिक अध्यक्ष थीं और राहुल गांधी 2013 में उपाध्यक्ष बने थे, फिर विफलता का ठीकरा उनके ऊपर क्यों फोड़ा जाता है? वास्तविकता यह है कि 2014 में जैसे हालात थे उसमें नरेंद्र मोदी को कोई नहीं रोक सकता था और उसके बाद नरेंद्र मोदी की सरकार और मोदी-अमित शाह की कमान वाली भाजपा ने जिस तरह की राजनीति की है उसकी वजह से उनको रोकना दिन प्रतिदिन मुश्किल होता जा रहा है। ऐसा नहीं है कि भाजपा के सामने सिर्फ कांग्रेस विफल हो रही है, बड़े और मंजे हुए प्रादेशिक नेताओं की पार्टियां भी फेल हो रही हैं।
दूसरी अहम बात यह है कि कोई भी नेता उतना ही अच्छा होता है, जितनी अच्छी उसकी पार्टी होती है। नेता उतना ही मजबूत होता है, जितनी मजबूत उसकी पार्टी होती है। लालकृष्ण आडवाणी को लौह पुरुष कहा जाता था। वे छोटे सरदार कहे जाते थे। राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के 97 साल के इतिहास में उनके जैसा स्वंयसेवक नहीं पैदा हुआ। उनसे बेहतर संगठन करने वाला नेता शायद ही किसी और पार्टी में हुआ। खुद नरेंद्र मोदी ने कहा हुआ है कि आडवाणी देश के बाकी नेताओं से इस मायने में अलग हैं कि उन्होंने अपने नीचे नेता पैदा किए।
भाजपा का समूचा नेतृत्व उनका तैयार किया हुआ है। लेकिन वे प्रधानमंत्री नहीं बन सके। उनको प्रधानमंत्री पद का दावेदार बना कर भाजपा ने 2009 का चुनाव लड़ा था और उसकी सीटें 138 से घट कर 116 हो गई थीं। कांग्रेस लगातार दूसरी बार चुनाव जीती थी और उसकी सीटें 145 से बढ़ कर 206 हो गई थीं। अटल बिहारी वाजपेयी के नेपथ्य में जाने और मोदी-शाह का युग शुरू होने से पहले जब तक पार्टी आडवाणी-राजनाथ सिंह और नितिन गडकरी की कमान में रही तब तक कांग्रेस उत्तर से दक्षिण तक चुनाव जीतती रही और उस बीच एक समय ऐसा भी था जब 14 राज्यों में कांग्रेस की सरकार थी। लेकिन तब भी किसी ने आडवाणी, राजनाथ या गडकरी के लिए वैसा प्रचार नहीं किया, जैसा राहुल के लिए किया गया है।
इस तथ्य को नजरअंदाज किया गया है कि राहुल गांधी 2004 में पहली बार लोकसभा का चुनाव लड़े और आठ साल के वनवास के बाद उसी साल कांग्रेस सत्ता में लौटी। फिर राहुल की परोक्ष कमान में कांग्रेस 2009 का चुनाव लड़ी और ज्यादा सीटों के साथ दोबारा सत्ता में लौटी। उस दौरान 2004 से 2014 के बीच कांग्रेस केरल से लेकर कर्नाटक और आंध्र प्रदेश से लेकर महाराष्ट्र, दिल्ली, हरियाणा, हिमाचल, राजस्थान, उत्तराखंड जैसे तमाम राज्यों में चुनाव जीती। लेकिन उसका श्रेय राहुल गांधी को नहीं दिया जाता है। राहुल गांधी को राजनीति में 18 साल हो गए लेकिन उनके पहले 10 साल को इसमें नहीं गिना जाता है, जब कांग्रेस जीत रही थी और राहुल पार्टी में युवा नेताओं को आगे करके नया नेतृत्व तैयार कर रहे थे।
अब सवाल है कि जिनको राहुल ने आगे बढ़ाया वे पार्टी छोड़ कर चले गए तो इसमें राहुल की क्या गलती है? पिछले चार साल में पांच बड़े राज्यों- महाराष्ट्र, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकार बनी, जिसमें से तीन सरकारें साम, दाम, दंड, भेद के दम पर भाजपा ने छीन ली तो इसमें राहुल की क्या गलती है?
यह ध्यान रखने की जरूरत है कि चुनाव हारने मात्र से कोई नेता कमजोर नहीं होता है और न पार्टी के लिए कमजोरी का कारण बनता है। भारतीय जनसंघ और भारतीय जनता पार्टी के नेताओं से बेहतर इस बात को कोई नहीं जानता होगा क्योंकि उनसे ज्यादा चुनाव कोई दूसरी पार्टी नहीं हारी होगी। फिर भी वे अपने चुनाव हारे नेताओं को महान बताते हैं और राहुल गांधी को ‘पप्पू’ कहते हैं। यह हिप्पोक्रेसी है, जिसे कांग्रेस के नेता समझ रहे हैं। वे वैचारिक रूप से राहुल की मजबूती और भाजपा सरकार के खिलाफ खड़े होने की उनकी ताकत को जान रहे हैं इसलिए उनको अध्यक्ष बनाने पर जोर दे रहे हैं।